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१६६ एतिहासिक जैन काव्य-संग्रह दोहा :-सोलहसय छपन्न' मई, संवछर सुखकार।
'मिगसर सुदी तेरसि' दीनइ, लोधउ संजम भार ॥१॥ माणक मोती माल सहु, हय गय रथ परिवार ।
छंडी संजम आदर्यो, जाण्यो अथिर संसार ॥२॥ दे दिक्षा नामउ कीयउ, 'राजसिंह' अणगार ।
हिव 'श्रीजिनसिंहसूरि' गुरु, करइ अनेथ विहार ॥३॥ वेलि:-हिब करइ अनेथ विहार, 'राजसिंह' हुओ अणगार ।
लीधर पंच महाव्रत भार, षट जीव नउ राखणहार ॥१॥ पंच सुमति भली परि पालइ, विषयारस दूरई टालइ ।
काइ धरम दश परकारइ, पाटोधर वान वधारइ ॥२॥ ग्रणा सेवन दुइ शिक्षा, सीखी संजम नी रिक्षा।
मंडलि तप वहा जाणि, 'श्रीजिनचन्दसूरि' विनाणी ॥३॥ दीधी दीक्षा बड़इ विरुद, नामउ दीयउ 'राजसमुद्र' ।
हिव शास्त्र भण्यां असमान, ते गिणतां नावइ गान ॥४॥ उपधान बूहा मन रंग, 'उत्तराध्यन' नइ 'आचारंग' ।
तप कलप तणउ आरुहउ, छम्मासी तप पिण बहउ ॥५॥ वयसई बहु पंडित आगइ, लुलि लुलि सहि पाये लागइ ।
इम लोक कहइ गुणरागी, जयउ 'राजसमुद्र' सउभागी ॥६॥ दोहा :-आवइ 'आठे व्याकरण' 'अट्ठारह-नाममाल' ।
'छए-तर्क' भणिआ भला, 'राग छत्रीस' रसाल ॥१॥ भलइ मेली भणिया वलि, 'आगम पैंतालीस' ।।
सईमुख श्री 'जिनसिंह' गुरु, सीखि दीयइ निशदीस ||२||
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