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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह
श्री क्षेमराज उपाध्याय नातं सरसति करि सुपसाउ हो, गाइ सु सुहगुरु राउहो ।
गाइसु सुह गुरु सफल सुरतरु, गछि खरतर सुहकरो। महियलइ महिमावंत मुणिवर, बालपणि संजम धरो।
सिद्धान्त सार विचार सागर, सुगुणमणि वयरागरो।
जयवंत श्री उवझाय खेमराज, गाइसु सही ए सुह गुरो ॥१॥ भवियण जण पडि बोहइ हो, छाजहडह कुलि सोहइ हो ।
छाजहड कुलि अवतरीय सुहगुरू, साह लीला नन्दणो। बर नारि लोलादेवो उयरई, पाप तापह चन्दणो।
दिखीया श्री जिनचन्द्रसूरि गुरि, संवत पनर सोलेत्तरइ । सीखविय सुपरइं सोमधज गुरि, भवियण, (जण) संशय हरइ ॥२॥ उपसम रसह भंडारू हे, संजमसिरि उर हारू ए।
संजम सिरि उर हार सोहइ, पूरव ऋषि समवडि धरइ । नवतत्त नवरस सरस देसण, मोह माया परिहरइ ।
जिणआण धरइ हीयडइ, पंच पमाय निवारए ।
उवझाय श्री खेमराज सुहगुरु, चवद विद्याधारए ॥३॥ कनक भणइ सिरनामी हे, मइ नवनिधि सिद्धि पामी हे ।
___पामीय सुहगुरु तणीय सेवा, सयल सिद्धि सुहामणी । चाउले चौक पूरेवि सुहव, वधावउ वर कामिणी।
दीपंत दिनमणी समउ तेजइ भबियजण तुम्हि वंदउ । उदिवंता श्री उवझाय खेमराज, 'कनक' भणइ चिरनंदउ ।।४।।
गुरु गोतं (वर्द्ध० भ० गुटका से ) १७ वीं सदी लिक
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