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________________ श्रो भावहर्ष उपाध्याय गीतम् श्री भाषहर्ष उपाध्याय गतिं श्रो सरसति मति दिउ घणी, सुहगुरु करउ पसाय । हरष करी हुं वीन, श्रीभावहर्ष उबझाय ॥ १ ॥ श्री भावहर्ष उवझायवर, प्रतपउ कोडि वरीस ।। तूठी सरसति देवता, हरषि दीयइ आसीस ॥२॥ तुडि करीनइ किम तोली(य)इ, धीर गम्भीर गुणेहि । मेरु महासागर मही, अधिका ते गुरु देहि ॥३॥ दिन दिनि संजमि संचडई सायर जिम सित ! पाखि । तप जप खप तेहवो करइ, जिसी न लाभइ लाखि ॥ ४ ॥ सुरुतरु जिम सोहामणा, मन वंछित दातार । हर्ष ऋद्धि सुख संपदा, तरु श्रावण जलधार ॥५॥ राग :-सोरठी जलधर जिउं जगत्र जीवाडइ, मन परम प्रीति पदि चाडइ। देसण रस सरस दिखाडइ, दुख दहनति दूरि गमाडइ ॥ ६॥ श्रावक चातक उछाह, मोर जीम श्री संघ साह । सरवर ते भवियण श्रवण, वाणी रसि भरियइ विवण ॥ ७ ॥ ऊगइ तिहां सुकृत अंकूर, टलइ मिथ्या भर तमल (तिमिर?)पूर । संताप पाप हुइ चूर, जिनशासन बिमवणउ नूर ॥ ८ ॥ श्री भावहर्ष उवझाय, ते जलिहर कहियइ न्याय । उपसम रसि पूरित काय, सोहइ संसारि सछाय ॥ ६ ॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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