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________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार. वर्द्धमान सूरि (पृ०४४) उपरोक्त उद्योतन सूरिजीके आप मुख्य शिष्य थे । आपने आबू गिरिपर छः महीनेतक तपस्या करके सूरि मन्त्रकी साधना (शुद्धि) की, पातालवासी धरणेन्द्रदेव प्रगट हुआ, उसके सूचनानुसार वहाँ आदिजिनकी वज्रमय प्रतिमा प्रगट हुई । इससे मंत्रीश्वर विमल दण्ड नायकको अतिशय आनन्द हुआ और गुरुश्रीके उपदेशसे उन्होंने वहां नंदीश्वर प्रसादके समान, चिरस्मरणीय यशःपुज स्वरूप 'विमल वसही' बनाई । पूज्य श्रीके अतिशय प्रभावसे मिथ्यात्वीयोगो आदि हतप्रभाव हुए और जैन शासनका जयवाद फैला, आपका विशेष परिचय गणधर सार्द्धशतक वृहद् वृत्ति, पट्टावलियों और युगप्रधान जिनचन्द्र सूरि (पृ०६) में देखना चाहिये । जिनेश्वर सूरि (पृ०४४) श्री वर्धमान सूरिजीके आप सुशिष्य थे। आपने गुजरातके अणहिल्लपाटणके भूपति दुर्लभराजके सभामें ८४ मठपति (चैत्यवासी) आचार्योंको, जो कि मन्दिरोंमें रहा करते थे, परास्त कर चैत्यवासका उत्थापन और वसतिवास-सुविहित मुनिमार्ग का स्थापन किया था । नृपति दुर्लभराज आपके गुणोंसे प्रसन्न होकर कहने लगे कि:-इस कलिकालमें कठिन और खरे चारित्रधारक साधु आप ही हैं । नृपतिके वचनानुसार तभीसे खरतर विरुदकी प्रसिद्धि हुई। विशेष चरित्र सामग्री और ग्रन्थ निर्माणकी सूचि देखें :-युग प्रधान जिनचन्द सूरि पृ० १० Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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