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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह रुपटका सहित तंबोल दियइ, वेंचिउ वित्त अपार । इम पइसारो विस्तार कीयो, वरतिऔ जय जयकार ॥१०॥ तंबोल दिधउ सुजस लीधउ, इसी बात घणी सुणी। श्रीसिकन्दर बादशाह, वडइ दिल्लीनउ धणो ॥११॥ जिसी जिनप्रभसूरि किरामति, पादशाहे जणियइ । एथी सहु लोकमांही, घj घj वखाणीयइ ॥१२॥ दीवान मांहे तेडाविया, कीधी पूछ बहुत । देखाडी किरामती आपणि, गुरुया गुरु गुणवंत ॥१३।। दीवान मांहे घोर तप नइ, जाप सुगुरु मन धरइ । जिनदत्तसूरि पसायइ चौसठि, योगिनी सानिध करइ ॥१४॥ श्रीसिकंदर चित्त मानियउ, किरामत काइ कही। पांचसइ बंदी बाखरसी, छोडव्या इण गुरु सही ॥१५॥ बंदि छोडि विरुद मोटउ हुयउ, तप जप शील प्रमाणि गुरु मोटा करम तणा धणी, जाणिउं इणउ इहनाणि ॥१६॥ बंदि छोडि मोटउ विरुदलाधर, बादशाहे परखिया । श्रीपासनाह जिणंद तुट्ठउ, संघ सकलइ हरखीया ॥१७॥ श्रीभक्तिलाभ उवझाय बोलइ, भगति आणी अति घणी। श्रीजिणहंससूरि चिरकाल जीवउ, गच्छ खरतर सिरधणी ॥१८॥
इति गुरु गीतम्
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