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________________ श्रीजिनसिंहसूरि गीतानि जुगप्रधान जगि जाणीयइ, श्रीजिनचंदसूरि मुणिंद रे । सहथि पाटइ थापीया, गुरु प्रतपइ तेज दिमंद रे ||२||०| सुर नर किन्नर हरषीया, गुरु सुललित वाणि वखाणइ रे । पातिशाहि प्रतिबोधियड, श्री अकबर साहि सुजाण रे || ३|| आ०|| बलिहारी गुरु वणयडे ? (वयणडे ) बलिहारी गुरु मुखचन्द रे । बलिहारी गुरु नयणडे, पेखहांत परमाणंद रे ||४||०|| धन चांपल दे कूखड़ी, धन चांपसी साह उदार रे । पुरष रत्न जिहां उपना, श्री चोपड़ा साख श्रृङ्गार रे ||५|| आ०|| श्री खरतर गच्छ राजियड, जिनशासन माहि दीवउ रे । “समयसुंदर" कहइ गुरु मेरड, श्रीजिनसिंघसूरि चिर जीवउ रे || ६आ० इति श्री श्री श्री आचार्य जिनसिंहसूरि गीतम् ॥ श्री हर्षनन्दन मुनिना लिपीकृतम् ॥ -**· ( ७ ) १२६ आज कुं धन दिन मेरउ । पुन्य दशा प्रगटी अब मेरी, पेखतु गुरु मुख तेरउ || १ | आ० ॥ श्री जनसिंहसूर हि (२) मेरे जीउ में, सुपनइ मई नहींय अनेरो । कुमुदिनी चन्द जिसउ तुम लीनउ, दूर तुही तुम्ह नेरउ || २ || आ० । तुम्हारइ दरसण आनंद (मोपइ) उपजती, नयन को प्रेम नवेरउ | “समयसुन्दर" कहइ सब कुं वलभ, जीउ तुं तिन थइ अधिकेर | | ३० Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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