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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह
उपा० भावप्रमोद स्वर्गगमन गीतम्
२५८
नं० १
जिस भाव जोगी जती जोग तत्त जांणतौ, वैण वखाणतो अमृत वाणि । साझीयौ तिसौ अवसाण २ सिध, जंपें अरिहंति मनि अंति जाणी ॥ १॥ व्याकरण तर्क सिद्धंत वेदन्त री, जीह वदतौ सदा भेद जुओ । भाव शिष 'भाव परमोद' चो भाव सुद्ध, हुं तो आछौ तिसौ मरण हुआ | २|| छै चोरासीये न छै कोइ ईये गुणि, श्रवण सुनीयो न को एम सीधो । ( भावपरमोद) जिम मुखा भगवंत भणै,
लीयां जस लाह स्वर्गलोक लीधो ||३||
वरस 'जुग वेद मुनि इंद १७४४ 'गुरु' 'माह वदि',
बात अखियात जुग सात बचिसी ।
बड पाठक तभी घणी महिमा वसु,
रात दिन वडा कवि पात रविसी ||४|| नं० २ कड़खा में
बिरदेवखाणी जै जी 'भावपरमोद' कुल रो भाण ।
जग मांहि जाणिजे जी, परधान पुरुष प्रमाण । टेक परधान सुजस निधान प्रगड, वा मुखि वान ।
असमान मान गुमांन अमली, मांण दीयण सु दान | ऊधां नाथणा नडण अनडां, पूजतै निज प्रांण ।
दीपतो सरव गुण जाण दीप, खरतरै दीवांण || १ || बि० ॥
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