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उ० भाव प्रमोद स्वर्ग गमन गीतम् २५६ व्याकरण वेद पुराण वदतौ, सकल जैन सिद्धन्त । ब्रह्मज्ञान आतम धरम वित्त, उपधान जोग विधन्त । आगम पेंतालीस अरथे, कथे कांइ न कांण। पाठक पदवी धार पृथि(वि) में, एहवै अहिनाण ॥२॥ बि० ॥ थूलभद्र नारद जिसौ धीरम, सील सत्त सरुप । "जिनरतन' सूरि पडूरि जैनू, इखै बुद्धि अनूप । तिम 'चंद' रै पिण छंदि चलतौ, वडिम आगेवाण ।। पाट पति छत्रपति पाव पूजें, रीझवै रावराण ॥ ३ ॥ वि०॥ "जिनराज सूरि' जिहाज जिन धरम, भट्टारक मुनिभूप । शिष्य तास 'भावविजे' समो भ्रम, गच्छ चोरासी रूप । 'भाव विनय' तिणरै पाट भणिजै, वडिम गुण वखांण । एतलां वंस राजहंस ओपम, सलहिजै सुविहाण ॥४॥ वि०॥ बांचतो वाणि वखांणि अविरल, अमृत धारा एम । नव नवा नव रस वचन निरुपम, जलहरां ध्वनि जेम। जस सुजस पंकज वास पसरी, प्रथ्वी रै परिमाण । रवि चंद नै ध्र (व) मेरु रहिसी, सुजस रा सहिनांण ।। ५ ।। वि० ।। जिण बाल वय ब्रह्म चार चारित्र, लोयो जती व्रत योग। वय तरुण पण मन में न वंछया, भला वंछित भोग। . तत पंच साबत नेम जत सत, वाच रुद्र ब्रह्मांण । मुकीयो नहों अरिहंत मुखं हूं, अंत रै अवसाण ॥ ६॥ वि०॥ आराधना सीधंत उचर, शुद्ध सरणा च्यार। मनि क्रोध कपट मिथ्यातमं के , लोभ नहींय लिगार।
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