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________________ २६० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह नहीं कोइ बैर विरोध किणसु, मोह नहीं अतिमांण । परलोक इंद्रापुरि पहोतो, पचखि भव (पच)खाण ।। ७ ।। वि०॥ संवत 'सतरैसे चमाले', 'माह वदि' गुरुवार । 'पंचमि' तिथ वलि पहुर पिछलै, सीख मति करि सार । भरि वीख लांबी चरम भव चवी, देवता जिम डांण । तप जप चै परताप पर-भवि, पहुंचस्यै निरवाण ॥८॥ वि० ।। इति श्री भावप्रमोदोपाध्यायनामंत्यावस्थायामुपरि अष्टकं संपूर्ण । (कृपाचंद्र सूरि ज्ञान भंडारस्थ गुटकेसे ), * जैनयती गुण वर्णन * केइ तो समस्त न्याय ग्रन्थमें दुरस्त देखे, फारसीमें रस्त गुस्त पूरी छत्रपती है । किस्त करै तपको प्रशस्त धरै योग ध्यान, हस्त के विलोकवै कुं सामुद्रिक मती है । पूज के गृहस्तके वस्त्रके जु ग्राहक हैं, चुस्त है कलामें, हस्त करामात छती है । 'खेतसो' कहत षट्दर्शनमें खबरदार, जैनमें जबर्दस्त ऐसे मस्त 'जती' हैं । ( १८ वीं शताब्दी लि० पत्र जय० भ०) Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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