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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह नहीं कोइ बैर विरोध किणसु, मोह नहीं अतिमांण । परलोक इंद्रापुरि पहोतो, पचखि भव (पच)खाण ।। ७ ।। वि०॥ संवत 'सतरैसे चमाले', 'माह वदि' गुरुवार । 'पंचमि' तिथ वलि पहुर पिछलै, सीख मति करि सार । भरि वीख लांबी चरम भव चवी, देवता जिम डांण । तप जप चै परताप पर-भवि, पहुंचस्यै निरवाण ॥८॥ वि० ।। इति श्री भावप्रमोदोपाध्यायनामंत्यावस्थायामुपरि अष्टकं संपूर्ण ।
(कृपाचंद्र सूरि ज्ञान भंडारस्थ गुटकेसे ),
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जैनयती गुण वर्णन *
केइ तो समस्त न्याय ग्रन्थमें दुरस्त देखे,
फारसीमें रस्त गुस्त पूरी छत्रपती है । किस्त करै तपको प्रशस्त धरै योग ध्यान,
हस्त के विलोकवै कुं सामुद्रिक मती है । पूज के गृहस्तके वस्त्रके जु ग्राहक हैं,
चुस्त है कलामें, हस्त करामात छती है । 'खेतसो' कहत षट्दर्शनमें खबरदार,
जैनमें जबर्दस्त ऐसे मस्त 'जती' हैं । ( १८ वीं शताब्दी लि० पत्र जय० भ०)
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