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________________ देव विलास २८५ ~~~~~~~~ तत्रना अधीशने, रोग भगंदर जेह । टाल्यो तत्र्तिण गुरुजिइं, गुरु उपर बहु नेह ॥ २॥ संवत 'अष्टादश च्यार' में, भावनगर' मझार । मेता 'ठाकुरसी' भलो, दुढकनो बहु पास । (प्यार ? ) ॥ ३ ॥ श्री 'देवचंद्रे' बुझवी, शुभमार्गिनो बास, तत्रना ठाकुर तणी, मत कीधी जैन पास ॥४॥ संवत 'अष्टादश च्यार मे, 'पालीताणो' गाम । मृगी टाली गुरुजीये, श्रीगुरुजीने नाम । संवत 'अष्टादश' 'पंच' 'षष्ठ'में, 'लोंबडी' गाम उदार । ___ 'डोसो वोहोरो' साहा 'धारसी', अन्य श्रावक मनोहार ॥ ६॥ साहा श्री 'जयचंद' जाणोये, साहा 'जेठा' बुद्धिवंत । 'रहो कपासी' आदि देइ, भणाव्या गुरुइं तंत ॥ ७ ॥ गुरुई सहु प्रतिबोधीया, जैनधर्ममें सत्य । गुरु उपगार न वीसारता, धर्मे खर्चे वित्त ।। ८ ।। 'लिंबडी' 'ध्रागंद्रा' गाम ए, अन्य 'चुडा' वली गाम; प्रतिष्ठा त्रिण थइ बिबनी, द्रव्य खरच्या अभिराम ।।६।। 'धांगद्रे' जिनबिंबनी, थइ प्रतिष्ठासार, 'सुखानंदजी' तिहां मल्या, 'देवचंद्र'नो प्यार ॥ १० ॥ देशी:- ललनानी छे॥ संवत 'अढारने आठमें', गुजरातिथी काड्यो संघ ललना। श्रीगुरुना गुरु उपदेशथी, शत्रुजयनो अभंग ॥ ल० ॥१॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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