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श्रीजिनदत्तसूरि अवदात छप्पय
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चउसठि तिय कइ रूप, आई गुरु छलवइ कुं।
गुरु यू तिण कू छली, लेहु उठो पटलइ कुं । पट्टले रहे आसण चढ़े, करामत गुरुकी वड़ी।
'ज्ञानहर्ष' कहत कर जोड़ि कर, रही देव चउसठ खड़ी ॥२८॥ करहु दूर पाटले, गुरु हारे हम तुम्ह पइ।
चाहीजइ कछु बात, लेहु गुरु यू तुम हम पइ ।। कहइ गुरु हम साधु, लोभ ममता नहीं करना ।
परतिख भइ तब देव, रूप बहु चउसठि भइनां ।। वर सात दइत हरखित भइ, सहु लोगां सुणतां समुख ।
'ज्ञानहर्ष' कहत अवदात यउ, परसिध हइ सब लोक मुख ॥२६॥ हइ हइ देव वर सत्त, नाम गुरु लेतां बिजुरी ।
परइ नहों किस परइ, प्रथम अयउ वर घइ सगरी ।। गाम नगर मणिमत्थ, एकु हुइगउ तुम्ह श्रावग ।
तुम श्रावग 'सिन्धु' गयउ, ख.ट ल्यावइ व्यापारग। वर चउथउ भूत प्रेत ज्वर, आधि व्याधि सबही टरइ ।
'जिणदत्तसूरि' मुखि जप्पतां, 'ज्ञानहर्ष' कवि उच्चरइ ॥३०॥ चोर धाड़ि संकट्ट मिटति, गुरु नामे पञ्चम वर ।
___ छट्ठउ जलहुं तरइ, जउ लूं मुख समरइ सदगुर । सातमउ वर साधवी, ऋतु नावइ खरतर की।
अयउ वर दे पग परी, बात सहु कही कइ उरकी ॥ समरतां आइ खड़ी रहइ, वीर बावन्ने परवरी ।
'ज्ञानहर्ष' कहत निस निति प्रतइ, करइ नृत्य चउसठ सुरी ॥३१॥
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