________________
१६२
ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मोनइ अनुमति दीजइ. मातजी, हुं लेइस संजमभार हो । जगि स्वारथ नउ सहु को सगउ, मिलीयोछइ ए परिवार हो॥२॥मो०॥ सहगुरु नी देसण सुणी, मन मांहि धरी अनुराग हो। हिव इणिभवथी मन उभगउ, मुझ नइ आव्यउ. वयरागहो ॥३॥मो०॥ अहो देस विदेश फिरी करी, खाटीजइ परिघल आथि हो। पणि परलोकइ जातां थकां, तो नावइ प्राणी साथि हो ॥४॥मो०॥ अहो इणभवि परभवि जीवनइ, सुख कारण श्रीजिनधर्म हो। जिणथी सुख सम्पति सम्पजइ, कीजइ तेहिज कर्म हो ॥५॥मो। अहो डाभ अणि-जल जेहवउ, जेहवउ चञ्चल नय (हय?) वेग हो । माता अथिर तिसउ ए आउखउ, आण्यउ इम जाणि संवेग हो॥६॥मो। अहो इणि जगि को केहनउ नहीं, परिजन नइ वलि परिवार हो । भगवन्तरउ भाख्यउ जीवनइ, इक धर्म अछइ आधार हो ॥णामो०॥ अहो जीव तणइ पूठइ वहइ, सर सान्ध्यइ बयरी काल हो । तिण कारण करसुं मातजी, पाणी आव्या पहलइ पाल हो ॥८॥ मो०॥ अहो ए सुख भोगवतां छतां, दुख थाय पछइ असमान हो। ते सोनउ केथउ कीजियइ, जे पहिरयउ तोडइ कान हो ॥६॥ मो०। अहो जेह बडा सुखिया अछइ, वलि हुस्यइ सुखिया जेह हो । ते सहु को पुण्य पसाउलइ, इहां कोई नहीं सन्देह हो ।।१०।। मो० । भेदाणी धरमइ करी, माता मुझ साते धात हो। मुनिवर नउ मारग मांहरइ, हियडइ वसियउ दिनरात हो ॥११ मो० । दोहा :-पुत्र वयण इम सम्भली, संजम मति सुविशाल ।
मुर्छाङ्गत माता थइ, पड़ी धरणी तत्काल ।।१।।
Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org