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________________ देव विलास २८७ 'मनरुपजी' ना शिष्य दोउं, 'वक्तुजी' 'रायचन्द' । ल०। गुरुभक्ति आज्ञा धरे, सेवामें सुखकन्द ॥ ल० ॥ १३ गुरु० ॥ संवत 'अढार ना बारमें', गुरु आव्या 'राजद्रंग' । ल० । राछनायकने तेडावीआ, महोछव कीधा अभंग ।। ल० ॥१४ गुरु०॥ “वाचकपद' 'देवचन्द'ने, गछपति देवे सार । ल । महाजने द्रव्य खरच्यो बहु, एह संबंध उदार ।।ल० ॥१५ गुरु०॥ नवमी ढाल सोहामणी, कवियण भाखी एह । ल० । एक जीभे गुण वर्णतां, कहितां नावे छेह ।। ल० ॥ १६ गुरु० ॥ ॥दूहा ॥ वाचक श्री 'देवचन्द्रजी', देशना पीयूष समान; __ जीव द्रव्यना भेदस्युं, नय उपनय प्रधान ॥ १ ॥ अंथ भला 'हरिभद्र' ना, वाचक 'जस' कृत जेह; 'गोमटसार' 'दिगंबरो', वाचना करे हित नेह ॥२॥ “मुलताने' 'देवचन्द्रजी', वली अन्य 'वीकानेर'; चोमासां गुरु तिहां करी, ज्ञानतणी समसेर ॥ ३ ॥ नवाग्रन्थ ज्हेने कर्या, टीका सहित तेह युक्त; 'देसनासार' 'नयचक्र', शुभ 'ज्ञानसार'नी भक्ति ॥४ ।। 'अष्टकटीका' युक्तिथी, 'कर्मग्रंथ' वली जेह; तेहनी टीका आदि देइ, ग्रन्थ कर्या बहुनेह ॥ ५ ॥ 'राजनगरे' 'देवचन्दजी', 'दोसीवाडा' मांहि; थोका लोक व्याख्यानमें, सांभलता उछाहिं ॥ ६ ॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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