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काव्योंका ऐतिहासिक सार
- बीकानेर निवासी बाफणा गोत्रीय रूपजी शाहकी भार्या रूपादे की कुक्षिसे आपका जन्म हुआ था, आपका जन्म नाम वीरजी था, लघु वयमें समता रसमें लयलीन देखकर जैसलमेरमें श्री जिनेश्वर सूरि जीने आपको दीक्षितकर, वीर विजय अभिधान दिया। आपपढ़-लिख खूब विद्वान और प्रतापी हुए, आपको श्रीजिनेश्वर सूरिजीने स्वयं अपने पट्टपर स्थापित किये। जैन शासनकी प्रभावनाकरके सं० १७१३ पोष मासकी ११ भृगुवारको अनशन पूर्वक आपस्वर्ग सिधारे । महिमासमुद्रजीने आपके दो गीत रचे, अन्य एक गीतमें समुद्रसुरिजीने आपके साचोर पधारनेपर उत्सव हुआ, उसका संक्षिप्त वर्णन किया है।
जिनसमुद्रसूरि
(पृ० ३१७, ४३२) . आप श्रीश्रीमाल हरराजकी भार्या लखमादेवीके पुत्र थे, श्री जिनचन्द्रसूरिजीके पट्टपर स्थापित होनेके पश्चात आप सूरत और सांस नगरमें पधारे, जिनका वर्णन माईदास और महिमाहर्षके गीतमें है । सूरतमें छत्तराज शाहने महोत्सव आदि किया था।
जिनसमुद्रसूरिके पश्चात पट्टधरोंके नाम ये हैं :-जिनसुन्दर सूरि-जिनउदयसूरि—जिनचन्द्रसूरि-जिनेश्वरसुरि (सं० १८६१) इनके पट्टधरका नाम नहीं मिलता। अन्तिम आचार्य जिनक्षेमचंद्र सूरि सं० १६०२ में स्वर्ग सिधारे ।
पिप्पलक शाखा
(पृ०३१६) गुर्वावली* में जिनराजसूरि (प्रथम )तक तो क्रम एक-सा ही *गुर्वावलीमें नवीन ज्ञातव्य यह है कि:-जिन बर्द्धमान सूरिजीने श्री
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