SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह आये, सं० १५८७ आषाढ़ बदी १३ को समारोहके साथ पुर प्रवेश कर पौषधशालामें पधारे । व्याख्यानादि धर्म कृत्य होने लगे। सं० १५६४ में राउल श्री लूणकर्णने जलके अभावमें अपनी प्रजाको महान कष्ट पाते देखकर दुष्कालकी सम्भावनासे गच्छनायकको वर्षा होनेके उपाय करनेकी नम्र विज्ञप्ति की। राउलजीकी प्रार्थना से सूरिजीने उपाश्रयमें अष्टम तप पूर्वक मंत्र साधना प्रारम्भ की, उसके प्रभावसे मेघमाली देवने घनघोर वर्षा वर्षाइ, जिससे भादवा सुदि १ को प्रथम प्रहरमें सारे तालाव-जलाशय भर गए । सुकाल हो जानेसे लोगोंके दिलमें परमानंद छा गया, सूरि महाराजकी सर्वत्र भूरि-भूरि प्रशंसा हुई, राउलजीने गुरु महाराजके उपदेशसे वणिक वन्दियोंको मुक्त कर दिया और पंच शब्द, वाजिन आदिके बजवाते हुए बड़े समारोह पूर्वक उपाश्रयमें पहुंचाये । - इस प्रकार सूरिजीने शासनकी बड़ी प्रभावनाकी थी, सं० १६५५ में ज्ञानबलसे अपने आयुष्यका अन्त निकट जानकर राधा (वैशाख) कृष्णा ८ को तीन आहारके त्यागरूप अनशन ग्रहण किया, एकादशीको संघके समक्ष प्रत्याख्यानादि कर डाभके संथारेपर संलेखना कर दी, शत्रु और मित्रपर समभाव रखते हुए, अर्हन्तादि पदोंका ध्याय करते हुए, १५ दिनकी संलेखना पूर्णकर वैशाख सुदि को १० वर्ष ५ मास और ५ दिनका आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग सिधारे । श्री जिनेश्वर सूरिजो ने इनका प्रबन्ध बनाया। जिनचन्द्रसूरि (पृ० ४३०, ३१६) श्री गुणप्रभसूरिजीके शिष्य श्री जिनेश्वर सूरिजीके पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरि हुए जिनका परिचय इस प्रकार है। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy