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________________ २३२ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह खरतर गच्छ युवराजियउ, थाप्यउ श्री जिनराज न रे । पाठक रंगविजय जयउ, सब गच्छपति सिरताज न रे ॥१॥ भवियण वांदउ भावस्य, जिम पायउ सुख सार न रे । रूप कला गुण आगलउ, निर्मल सुजस भंडार न रे ॥२॥ भ० सरस सुकोमल देसना, मोहइ सहूय संसार न रे। कूड़ कपट हीयइ नहीं, सहुको नइ हितकार न रे ॥३॥ भ०॥ होडि करइ गुरु नी जिके, ते जायइ द्रह बोड़ि न रे । सुख पायइ ते सासता,जे सेव करइ कर जोड़ि न रे ॥४॥ भ०॥ गुरु गुण गावइ मन सूधइ, नाम जपइ निशि दोश न रे। _ 'ज्ञानकुशल' कहइ तेहनी, पूजइ मनह जगीश न रे ॥५॥ भ०॥ ॥ युगप्रधान पद गीतम् ॥ 'जिनराजसूरि' पाटोधरू, दसच्यार विद्या जाण । वचन सुधारस वरसतौ, मानै सहुको आण ॥१॥ मोरी सही ए वांदोनी, जिनरंग, आणी मनमें रंग । वाणी गंग तरंग । मो० पातिशाह परख्यो जेहने, दीधो करि फुरमाण । सात सोवे (सुबा ?) माहरो, करज्यो वचन प्रमाण ॥२॥ मो०।। तसु पुत्र दीपे पाटवी, 'दारा' स को सुलताण । युगप्रधान पदवी तणो, करि दीधो निसाण ॥३।। मो०॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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