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ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह
खरतर गच्छ युवराजियउ, थाप्यउ श्री जिनराज न रे ।
पाठक रंगविजय जयउ, सब गच्छपति सिरताज न रे ॥१॥ भवियण वांदउ भावस्य, जिम पायउ सुख सार न रे ।
रूप कला गुण आगलउ, निर्मल सुजस भंडार न रे ॥२॥ भ० सरस सुकोमल देसना, मोहइ सहूय संसार न रे।
कूड़ कपट हीयइ नहीं, सहुको नइ हितकार न रे ॥३॥ भ०॥ होडि करइ गुरु नी जिके, ते जायइ द्रह बोड़ि न रे ।
सुख पायइ ते सासता,जे सेव करइ कर जोड़ि न रे ॥४॥ भ०॥ गुरु गुण गावइ मन सूधइ, नाम जपइ निशि दोश न रे। _ 'ज्ञानकुशल' कहइ तेहनी, पूजइ मनह जगीश न रे ॥५॥ भ०॥
॥ युगप्रधान पद गीतम् ॥
'जिनराजसूरि' पाटोधरू, दसच्यार विद्या जाण ।
वचन सुधारस वरसतौ, मानै सहुको आण ॥१॥ मोरी सही ए वांदोनी, जिनरंग, आणी मनमें रंग ।
वाणी गंग तरंग । मो० पातिशाह परख्यो जेहने, दीधो करि फुरमाण ।
सात सोवे (सुबा ?) माहरो, करज्यो वचन प्रमाण ॥२॥ मो०।। तसु पुत्र दीपे पाटवी, 'दारा' स को सुलताण ।
युगप्रधान पदवी तणो, करि दीधो निसाण ॥३।। मो०॥
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