________________
wrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr
ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मनोयोगसे विद्याध्यन करने लगे और समस्त शास्त्रोंके पारंगत बने । सोमप्रभकी योग्यतासे प्रसन्न हो गुरुश्रीने सं० १४०६ में जेसलमेरमें 'वाचनाचार्य' पद प्रदान किया। वाचनाचार्यजी सुविहित बिहार करते हुए धर्म प्रचार करने लगे।
इस प्रकार धर्मोन्नति करते हुए सोमप्रभजीको सं० १४१५ आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशीको खंभातमें श्री तरुणप्रभाचार्यने जिन चंद्रसूरिके पदपर स्थापित किये । पदस्थापनका विशेष वर्णन ऊपर आ ही चुका है। __ आचार्यपद प्राप्तके अनन्तर श्री जिनोदय सूरिजीने सिंध, गुजरात, मेवाड़ आदि देशोंमें विहार कर सुविहित मार्गका प्रचार किया। पांच स्थानोंमें बड़ी प्रतिष्ठायें की, २४ शिष्यों १४ शिष्यणियोंको दीक्षित किये, अनेकोंको संघवी, आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य महत्तरा आदि पदसे अलंकृत किये। इस प्रकार धर्म प्रभावना करते हुए सं० १४३२ के भाद्र कृष्णा एकादशीको पाटणमें लोकहिताचार्यको शिक्षा देकर स्वर्ग सिधारे । संघने आपके अन्तक्रिया स्थलपर सुन्दर स्तूप बनाकर भक्ति प्रदर्शित की।
जिनराज मूरि उ० गुर्वावलियोंमें जिनभद्र सूरि
जिनचन्द्र सूरि पृ० ४८ साहु शाखाके वच्छराजकी भार्या स्याणीके कुक्षिसे आप जन्मे थे। - जिन समुद्रसूरि ___उ० गुर्वावलियोंमें
Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org