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________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार मेरुसदन कृत विवाहलेके अनुसार श्रीजिनोदयसृरिका विशेष परिचय इस प्रकार है गूर्जरधरा रूपी सुन्दरीके हृदयपर रत्नोंके हारके भांति पाहणपुर नगर है। उसमें व्यापारी मुख्य माल्हू शाखाके (शाह रतनिग कुल मण्डल ) रुद्रपाल श्रेष्ठि निवास करते थे। सं० १३७५५ में उनकी भार्या धारल देवीके कुक्षि सरोवरसे राजहंसके सदृश पुत्र उत्पन्न हुआ। माता पिताने उसका शुभ नाम समरा रखा । चन्द्रकलाके भांति समरा कुमर दिनोदिन वृद्धिको प्राप्त होने लगा। .. इधर पाल्हणपुरमें किसी समय श्री जिनकुशलसूरिजी का शुभागमन हुआ । धर्म-प्रेमी रुद्रपालने सपरिवार गुरुजीको वन्दन कर धर्म श्रवण किया । सूरिजीने समरा कुमरके शुभ लक्षणोंको देख (आश्र्चान्वित होकर ) रुद्रपालको उसे दीक्षित करनेका उपदेश देकर आप भीमपल्ली पधारे। इधर माताके खोलेमें बैठे कुमरने सूरिजीके पास दिक्षा कुमारीसे विवाह करानेकी प्रार्थना की। माताने संयम पालनकी दुष्करता, उसकी लघु अवस्था आदि बतलाकर बहुत समझाया, पर वैरागी समराने अपना दृढ़ निश्चय प्रगट किया। अतः इच्छा नहीं होते हुए भी पुत्रके अत्याग्रहसे रुद्रपालने सपरिवार भीमपल्ली जाकर वीर जिनालयमें नांदिस्थापन कर जिनकुशलसूरिके हस्तकमलसे समरा कुमरको सं० १३८२ में दीक्षा दिलाई। कालिकाचार्यके साथ सरस्वती बहनने दीक्षा ग्रहण की थी उसी प्रकार समराकुमरके साथ उसकी बहिन कील्हूने दीक्षा ग्रहण की। गुरुने समरेकुमरका नाम 'सोमप्रभ' रखा। सोमप्रभ मुनि अब बड़े Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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