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________________ १६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह विहार कर जिनधर्म प्रचारक जिनकुशल सूरि, सुरगुरु अवतार जिनपद्म सूरि, शासन शृङ्गार जिनलब्धि सूरिके पट्ट प्रभाकर तेजस्वी जिनचन्द्रसूरि ज्ञाननीर वर्षाते हुए खंभाते पधारे और ( आयुष्यका अन्त जान, तरुण प्रभ ) आचार्य को गच्छ और पद स्थापनादिकी समस्त शिक्षा देकर स्वर्ग सिधारे । इसी समय दिल्ली वास्तव्य श्रीमाल रुद्रपाल, नींबा सधराके पुत्र संघवी रतना पूनिग सदगुरुवर्यको वन्दनार्थ खंभात आये और उन्होंने श्री तरुणप्रभाचार्यको वन्दनकर पद महोत्सवकी आज्ञा ले ली । सं० १४१५ के आषाढ़ कृष्ण १३ को हजारों लोगोंके समक्ष अजितजिनालय में आचार्यश्रीने वाचनाचार्य सोमप्रभको गच्छनायक पद देकर जिनोदय सूरि नाम स्थापनाकी । संघवी रतना, पूनाने उस समय बड़ा भारी उत्सव किया। लोगोंके जयजयारवसे गगन मण्डल व्याप्त हो गया । वाजित्र बजने लगे, याचक लोग कलरव (शोर ) करने लगे, कहीं सुन्दर रास (खेल) हो रहे थे, कहीं मृदुभाषिणी कुलाङ्गनायें मङ्गल गीत गा रही थीं। इस प्रकार वह उत्सव अतिशय नयनाभिराम था। संघवी रतना पूना और शाह वस्तपालने याचकोंको वांछित दान दिया, चतुर्विध संघकी बड़ीभक्ति और विनयसे पूजाकी, साधर्मी वात्सल्यादि सत्कार्यों में अपन चपला लक्ष्मीको खुले हाथ व्ययकर जीवनको सार्थक बनाया, उस समय साल्डिंग और गुणराजने भी याचकोंको बहुत दान दिये । उपरोक्त वर्णन ज्ञानकलश कृत रासके अनुसार लिखा गया है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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