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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अवर तीर्थ पण श्रीगुरु भेट्या, प्रतिबोध्यो पातिसाह री माई । अकबर अधिको आसति निरखी, दीधौ मौटौ लाह री माई ।।११।। खम्भायत नो खाड़ी केरा, राख्या जीव अनेक री माई। बरस एक लग श्री गुरु वचने, पाम्यो परम विवेकरी माई ॥१२॥क० सात दिवस लगि निज आणा में, वरतावी अमारि री माई। अकबर अवर अपूर्व कारिज, कीधा गुरु उपकाररी माई ॥१३॥०॥ पंचनदी पति परतिख साध्या, माणभद्र विख्यात री माई ।
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(१५) श्री गुरुजी गोत युगवर श्री जिनचन्दजी, जगि जिनशासनि चन्द रे ।
प्रहसमि उठी पूजियइ, कामित सुरतरु कंद रे ॥१"जुग०।। संवति पनर पंचाणुयइ, श्रीवंत साह मल्हार रे। ___मात सिरियादेवि जनमीयउ, रीहड़ कुल सिणगार रे ।राजुग० संवत सोल चिडोत्तरइ, जाणी जिणि अथिर संसार रे ।
हाथि जिनमाणिकसूरि नइ, संग्राउ संयम भार रे ।।३।।जुग०।। वयरकुमार तणी परइ, लघुवइ बुद्धि भंडार रे । . गुरुकुल वास वसि पामियउ, प्रवचन सागर पार रे ।४।जुग०. संवत सोल बारोतरइ, जेसलमेरु मझारि रे। भाग्य बलि सूरि पदवी लही, हरखिया सवि नर नारि रे ।५।जुग०। कठिण क्रिया जिण उद्धरि, मांडियउ उग्र विहार रे । - सूरि जिणवल्लभ सारिखउ, चरण करण गुणधार रे दाजुग
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