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________________ १९६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सुगुरु जो धन्य-धन्य तुम अवतार, ए माणस भव नुसार ।। आंकणी ।। आनुपूरवी एहवी रे, उपशम्यो पूरब रोग। श्री संघ 'अहमदाबाद' नो रे, गीतारथ संयोग ॥२॥ 'आखातीज' नइ द्याहड़ि रे, शिष्यादिक नइ सार । सीखामणि सहगुरु दि(य)ई रे, गुरु गच्छ नुं व्यवहार ।।३।। चारित फेरी ऊचरि रे, गच्छ भार सहु छोड़ि। ___उत्तम मारग आदरि रे, अशुभ कर्म दल तोड़ि ॥ ४ ॥ 'सुदि आठम वैसाख' नो रे, अणसण 'नो उच्चार । श्रीसंघ नी साखि करइ रे,त्रिविधि-त्रिविध विविहार ।।५।। पासे गीतारथ यति रे, श्री ‘राजसोम' उवझाय । 'राजसार' पाठक भला जी, 'सुमतिजी' गणि नी सहाय ।।६।। 'दयाकुशल' वाचक वलि रे, 'धर्ममन्दिर' मुनि एम । ___'समयनिधान' वाचक वरु रे, 'ज्ञानधर्म' मुनि तेम ॥ ७ ॥ "सुमतिवल्लभ" सावधान सुरे, आठ पुहर सीम तेम । शाह 'हाथी' धर्म हाथियो रे, निजरावि गुरु एम ॥ ८ ॥ ढाल (५) बिणजारानी मोरा सहगुरुजो, तुम्हें करज्यो शरणा च्यार । सहगुरुजी करज्योः अरिहन्त सिद्ध सुसाधुनो मो० केवलि भाषित धर्म, ए फल नरभव लाध नो ।। १ ।। मो०. जीव 'चुरासो' लाख, त्रिकरण शुद्ध खमाविज्यो । मो०। पाप अठारह थान, परिहरि अरिहन्त ध्यावज्यो ॥२॥ मो०. ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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