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________________ श्री जिनसागर सूरि रास १६५ यथा योग जाणी करी, पाठक वाचक कीध । ___ श्री 'जिनधर्म'सूरीशने, गच्छ भार इम दीध ॥२॥ ढाल ३ इक दिन दासी दौडती, . आवै कृष्ण नइ पासे रे ।। एहनी ।। 'अहमदावाद' मइ आपणइ, सेंहथि संघ हजूर रे । प्रथम ओढाड़ी पछेवड़ी, श्री जिनसागरसूर' रे ।। १ ॥ अवसर लाखीणो लही, खरचे द्रव्य अनेक रे। . 'भणसाली 'बधू' भारिजा, 'विमला दे' सुविवेक रे ॥२॥ वलतुं पद थापन करो, सूर मन्त्र गुरु दीध रे ।। श्री जिनधर्म सूरीश्वरु', नाम थाषना इम कीध रे ॥ ३॥ संघवणि 'सहजलदे' तिहां, ल्यइ लिखमी नो लाह रे । पद ठवणो करइ परगड़ो, कहइ लोक वाह-वाह रे ॥४॥ पहिला पणि सुकृत जिके, कीधा अनेक प्रकार रे। .... शत्रुजय संघ कराविउ, खरची द्रव्य हजार रे ॥५॥ श्री 'जिनसागरसूरि' जी, सहगुरु साथे लीध रे । पाटंबरने पांभरी, जाचक जन ने दीध रे ॥६॥ 'भणसाली सधुआ' घरणि, ते 'सहिजल दे' एह रे। पद ठवणि जे 'पूज्य' नै, खरची नइ जस लेह रे ।।७।। ढाल ४ (कपूर हुवे अति ऊजलो रे) अवसर जाणी आपणउ रे, आगल थी अणगार | . जिण थी शिव सुख पामिइं रे, ते सांभलि अंग इग्यार ॥ १ ॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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