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________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अपने गुरुजीकी भक्ति सूचक इस अष्टककी रचना की है। इसका ऐतिहासिक सार इस प्रकार है :____ कच्छ देशमें उपकेश वंशकी वृद्ध शाखामें आपका जन्म हुआ था, श्री जिनभक्तिसूरिजीके शिष्य प्रीतसागरजी ( जिनलाभ सुरिके सतीर्थ-गुरु भ्राता) के आप शिष्य थे। आपने शत्रुजयादितीर्थों की यात्रा थी एवं सिद्धांतोंका योगोवहन किया था। संवेगेरगसे आपकी आत्मा ओतप्रोत थी (इसीसे आपने परिग्रहका त्याग कर दिया था) । पूर्व देशमें आपके उपदेशसे स्वर्णदंडध्वज कलशवाले जिनालय निर्माण हुए थे। अनेक भव्यात्माओंको प्रतिबोध देते हुए आप जैसलमेर पधारे, और वहीं सं० १८५१ माघ शुक्ला ८ को समाधिसे आपको मृत्यु हुई। स्थानांग सूत्रके अनुसार आपकी आत्मा मुखसे निर्गत होनेके कारण, आप देवगतिको प्राप्त हुए ज्ञात होते हैं। आप आप वाचनाचार्य पदसे विभूषित थे। विशेष परिचय उ० क्षमाकल्याणजीके स्वतंत्र चरित्रमें दिया जायगा । उ० क्षमाकल्याण (पृ० ३०८) गुरुभक्त शिष्यने आपके परलोकवासी होनेपर विरहात्मक और गुणवर्णनात्मक इस अष्टक और स्तवको रचा है। स्तवका ऐति-, हासिक सार यही है, कि सं० १८७३ पौष कृष्णा १४ को बीकानेरमें' आप स्वर्ग सिधारे थे। १६ वीं शताब्दीके खरतर विद्वानों में आप अग्रगण्य थे। आपका ऐ० चरित्र हम स्वतंत्र पुस्तकाकार प्रकाशित करनेवाले हैं, अतः यहां विशेष नहीं लिखा गया । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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