________________
श्रीजिनसागरसूरि रास
१८१ नित नित कुमर बाधइ बहु लक्खणि, सुरतरु नउ जिम कंद रे ।
नयणी अनोपम निलवट सोहई, वदन पूनम नउ चंद रे ॥२८॥ सहुअ सजन भगतावी भगतई, मेलि बहु परिवार रे । _ 'चोलउ' नाम दियउ मन रंगई, सुपन तणई अनुसारि रे ॥२६॥ सहिअ समाण मिलि मात पासइ, साह 'वछराज' कुलि दीव रे । 'सामल' नाम धरि हुलरावई, मुखि बोलइ चिरजीव रे ॥३०॥
रागः- मारु दोहा-रमइ कुमर निज हरखसुं, मात 'मृगा दे' पुत्र ।
गजगति गेलइ चालतउ, कुलमंडण अदभूत ।। ३१ ।। मीठा बोलइ बोलडा, काय कनक नइ वान ।
बालक 'बत्रीस लखणो', मात पिता द्यइ मान ॥ ३२ ॥
ढाल:-पाछली माइडी मनोरथ पूरइ, सुन्दर सुंखड़ी आपइ रे ।
बड़ा वचन नवि लोपीयइ, मन सुधि सीख समापइ रे ॥३३॥ आसा बांधी माइड़ी, सेवइ सुरतरु जेमो रे ।
पोसइ कुमर नइ बहु परइ, 'शालिभद्र' जिम प्रेमो रे ॥३४॥ ईग अवसरि तिहां आवीया, 'जिनसिंह सूरि' सुजाणो रे।
श्री संघ वंदइ भावसुं, उछव अधिक मंडाणो रे ॥३५।। मात 'मृगादे' सुत सहू, निसुणइ अरथ विचारो रे ।
मन मइ वैराग उपनो, जांणी अथिर संसारो ॥ ३६ ।। दोहा-'गजसुकमाल' जिम 'मेघ मुनि', 'अइमतो तिण काले ।
'सामल' ते करणी करइ, जाणइ बाल गोपाल ।।३७॥
Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org