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________________ १८० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह नगर मांहि बहुला व्यवहारी (व्यापारी), दानशील तप भावि उदारी। वसइ तिहां पुण्यइ बहु वित, साह 'वछा' नामइ थिर चित्त ॥१६॥ राग :-रामगिरी। दोहा-रयणी सोहइ चंद से, दिनकर सोहइ दीस । तिम 'वछा' 'बोहिथ' कुलइ, पूरउ मनह जगीस ॥२०॥ ___ ढाल:-पाछली तासु घरणि 'मिरगा दे' सती, रूपइ रंभा नु जीपति । 'चउसठि' कला तणी जे जाण, मुखि बोलइ सा अमृत वाणि ॥२१॥ प्रिय सुं प्रेम धरइ मनि घणउ, 'दसरथ' सुत जिम 'सीता' सुणउ । चंद्र चकोर मनइ जिम प्रीति, पालइ पतिव्रत धरम नी रीति ॥२२॥ पांचे इंद्री विषय संयोग, नित नित नवला वहुविध भोग । नव यौवन काया मद मची, इंद्र संघातइ जाणे सची ॥२३॥ रागः- आसावरी दहा-सुखभरि सूती सुंदरि, पेखि सुपन मध राति । ___ रगत चोल रत्नावली, प्रिउ नै कहइ ए बात ॥ २४ ॥ सुणी बचन निज नारि ना, मेघ घटा जिम मोर । हरख भणइ सुत ताहरइ, थासइ चतुर चकोर ।।२५।। हाल-आस फली माइडी मन मोरी, कूखइ कुमर निधान रे। ___ मनवंछित डोहलां सवि पूरइ, पामइ अधिकउ मान रे ।२६।आ०। संवत 'सोल बावन्ना' वरषई, 'काती सुदो' 'रविवार' रे। 'वउदसि'ने दिनि असिणि रिखइ(नक्षत्रइ?),जनम थयो सुखकार।।२७. Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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