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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह
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खारा नइ खोटा, मीठां मधुरा भक्ष,
काचा नइ कोरां, कंदा मूल अभक्ष । रयणि भोयण घण, परदारा गम(न) किद्ध,
तोहि तृपति नहीं मुझ, जिम खारइ जलि पिद्ध ॥७०॥ ए जरा धूतारी, धोइ देस विदेस,
विण साबू पाणी, उज्जल करस्यइ केस । तिणि विण आव्यइ जे, मई कीधा बहु पाप ।
ते मुझ मनि जाणइ, जिम मा जागइ बाप ॥ ७१ ॥ कोइ सुगुरु मिलइ सुं, निज पातिक आलोउं,
गुरु वाणी गंगा, पाप तणां मल धोऊ। एहवई 'मेडता' मां, आव्या बड अणगार ।
श्री 'कमल विजय' गुरु, सकल शास्त्र भंडार ।। ७२ ।। साह 'नाथू' हरख्या, निरखी तस दोदार,
धन २ ए मुनिवर तपा गछ शृङ्गार । जाव जीव एहनि द्रव्य सात आहार ।
मीठाइ मेवा, विगइ पंच परिहार ॥ ७३ ॥ ए गुरु संवेगी, वैरागी धन धन्न ।
ए मोटो पंडित, ठाणे पंचावन्न । आवी वंदी नइ, कही 'नायक दे' कंत ।
गुरुजी आलोयण आपो, मुझ एकंत ।। ७४ ॥ चलता पंडित कहइ सुणिं तु 'नाथूमाह',
_ आलोयण लेयो, जब वंदउ गछनाह ।
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