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लावण्यसिद्धि पहुतणी गीतम् दूहा:-अंग उपांग सहु तणा, जाणइ अरथ विचार ।
श्री 'लावण्यसिद्धि' पहुतणी, विद्या गुण भंडार ।।६।। सब विद्या गुण भंडार, महिमंडलि करइ विहार।
तप करि काया उजवालइ, 'चंदनबाला' इणि काले ॥१०॥ "जिनचंद' सुगुरु आदेस, परमाण करइ सुविशेष ।
अनुक्रमि 'विक्रमपुरि' आवी, निज अंत समय परभावी ॥११॥ सवि जीवह रासि खमावी, उत्तम भावना मन भावी ।
अणशण आदरियउ रंगइ, सुर व(प्र?)णमइ धरमहु संगइ ॥१२॥ दूहा:-समकित सूधउ पालती, करती सरणा च्यारि ।
इण परि संथारो कीयउ, माया मोह निवारि ॥ १३ ॥ माया मोह निवारी, करइ संघ प्रभावन सारी ।
वाजइ पंच शब्द तिहां भेरी, नीसाण घुरंति नफेरी ॥१४॥ अपछर आरतीय उतारि, जिन शासन महिम बधारी ।
जिनवर नो ध्यान धरती, नवकार विधइ समरंती ॥ १५ ॥ दूहाः-संवत 'सोलहसइ बासठि', पहुती सरग मंझारि ।
जय जय रव सुर गण करइ, धन गुरुणो अवतार ॥ १६ ॥ धन धन गुरुणी अवतार, भवियण जन नइ सुखकार ।
थिर थान 'विक्रमपुरि' धुंभ, देखि मनि धरइ अचंभ ॥१७॥ परता पूरण मन केरी, कल्पतरु थी अधिकेरी। 'हेमसिद्धि' भगति गुण गावइ, ते सुख संपति नितु पावइ ॥१८॥
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