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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह तुम सरिखउ संसारमें पू०, देखें नहिं को दीदार ।
नयना तृप्ति पामइ नहीं, पू० संभारू सौ वार ॥पूगातु॥६॥ मुझ मिलवा अलजौ घणौ पूज्य०, तुम्हे तो अकल अलक्ष ।
सुपनि में आवि वंदावज्यो, पू० हुं जाणिसि परतक्षि ॥पूचातु०॥१०॥ युगप्रधान जगि जागतउ, पू० श्री जिनचन्द मुणिंद ।
सानिधि करिज्यो संघ ने, पू० समयसुंदर आणंद ॥पूछातु०॥११॥
॥ इति श्री जिनचन्द्र सूरीश्वराणां आलजा गीतं ॥
स० १६६६ वर्षे श्री समयसुं(द)र महोपाध्याय तच्छिष्यमुख्य श्री वाचनाचार्य श्रीमहिमासमुद्र *गणि तच्छिष्य पं० विद्याविजय गणि शिष्य पं० वीरपालेनालेखि ॥१॥ (पत्र ४ हमारे संग्रहमें )
x पाठक श्री समयसुन्दरजीगणि ने इनके आग्रहसे सं० १६६७ में "श्रावकाराधना" बनाई जिसको अन्त्य प्रशस्ति इस प्रकार है :आराधनां सुगम संस्कृत वार्तिकाभ्यां, चक्र क्रमात् समयसुंदर आदरेण । उच्चाभिधान नगरे महिमासमुद्र शिष्याग्रहेण मुनि षडरस चन्द्र वर्षे ॥
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