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पूताना और मालवामें विशेष रूपसे पाया जाता है। इसमें हिन्दी
और गुजराती दोनों भाषाओंका पूर्वरूप गुंथा हुआ है। इस भाषाके अध्ययनसे पता चल जाता है कि ये दोनों भाषायें तो मूलतः एक ही हैं।
प्रस्तुत संग्रहमें अपभ्रंशका और भी विकसित रूप पाया जाता है और उसका सिलसिला प्रायः वर्तमान कालकी भाषासे आ जुड़ता है। ये उदाहरण डिंगल भाषाके विकास पर बहुत प्रकाश डालते हैं। भाषाकी दृष्टिसे इन अवतरणोंका संशोधन और भी अधिक सावधानीसे हो सकता तो अच्छा था। किन्तु अधिकांश संग्रह शायद एक-एक ही मूल प्रति परसे किये गये हैं। अब इस ग्रंथकी ऐतिहासिक व भाषा सम्बन्धी सामग्रीका विशेष रूपसे अध्ययन किये जानेकी आवश्यकता है । आशा है नाहटाजीका यह संग्रह एक नये पथ-प्रदर्शकका काम देगा। ऐसे ऐसे अनेक संग्रह अब प्रकाशमें आवेंगे और उनके द्वारा देशके इतिहास और भाषा विकासका मुख उज्ज्वल होगा। यह प्रयत्न अत्यन्त स्तुत्य है । किंग एडवर्ड कालेज,
हीरालाल जैन अमरावती।
एम० ए०, एल० एल० बी०, २१-४-३७
प्रोफेसर आफ संस्कृत।
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