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ऐतिहासिक जेन काव्य संग्रह मंदमती ने शास्त्र वंचावता, आपता ज्ञान नो पंथ । जोडिकला मांहि मन राखतो, निरलोभी निग्रंथ ॥५॥श्री।। शत्रुजयमहातम आदि भला, तेहना कीधा रे रास । जिन स्तुति छंद छप्पया चउपई, कीधा भल भला भास ॥६॥श्री।। निज शकति इम ज्ञान विस्तारीयु, अप्रमत्त गुणना निवास । ईया सुमति मुनिवर चालता, भाषासुमति स्यु भाष ॥णाश्री।। एषगासुमति आहारई चित्त धरयु, नही किहांई प्रतिबंध । निरीह पणै मन लूखू जेहनु, नही को कलेशनो धंध ॥॥श्री।। गच्छनो ममत्व नही पण जेहनें, रुडा निस्पृह वंत । शांतो दांत गुणे अलंकरु, शोभागी सत्यवंत ॥६॥श्री।।
श्रीजिनहरष मुनीश्वर बंदीइ, गीतारथ गुणवंत । गच्छ चुरासीई जाणइ जेहने, मानइ सहु जन संत ॥१॥ पंचाचार आचारई चालता, नव विध ब्रह्मचर्यधार । आवश्यकादिक करणी उद्यमई, करता शकति विस्तारि ।।२।। आज कालिनारे कपटी थया, मांडी डाक डमाल । निज पर आतमने धूतारता, एहवो न धरयोरे चाल ।।३।। आज तो ज्ञान अभ्यास अधिकछ, किरिया तिहां अणगार ते 'जिनहरष' मांहि गुण पामीइ, निंदै तेह गमार ॥४॥ आप मती अज्ञान क्रिया करी, त्रा(द?)डूकइ जिम सांड । हुं गीतारथ इम मुख भाखता, खुलनु थाइरे षांड ।।५।।
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