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________________ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह दीक्षाके अनन्तर सूरिजी शीघ्र ही अन्यत्र विहारकर गये । राज सिंहके मण्डलतप बहन कर चुकनेके सम्वाद पाकर श्री जिनचन्द्र सूरिजीने उन्हें बड़ी दीक्षा (छेदोपस्थापनीय) दी और नाम राजसमुद्र प्रसिद्ध किया। राजसमुद्र थोड़े ही समयमें कुशाग्र बुद्धिबलसे सूत्रों को पढ़कर गीतार्थ हो गये। श्री जिन सिंह सूरिजी स्वयं आपको शिक्षा देते थे, श्री जिनचन्द्र सूरजीने आपको वाचनाचार्य * पदसे अलंकृत किया। आपके प्रबल पुन्योदयसे अम्बिकादेवी प्रत्यक्ष हुई। जिसके प्रत्यक्ष फलस्वरूप घंघाणीके (प्राचीन) लिपीको आपने पढ़ डाली । जेसलमेरमें राउल भीमके समक्ष आपने तपागच्छीयों*को परास्त किये थे। ____इधर सम्राट जहांगीरने मान सिंह (जिन सिंह सूरि) से प्रेम होनेसे उन्हें निमन्त्रणार्थ, अपने वजीरोंको फरमान-पत्रके साथ बीकानेर भेजा। वे बीकानेर आये और फरमान पत्र सूरिजीकी सेवामें रखा । सङ्घने पढ़ा तो सूरिजीको सम्राट्ने आमन्त्रित किया जानकर सभी प्रसन्न हुए। सम्राटके आमन्त्रणसे सुरिजी विहार कर मेड़ते पधारे । वहां एक महीनेकी अवस्थिति की, फिर वहांसे एक प्रयाण किया पर, आयुका अन्त निकट ही आ चुका था, अतः मेड़ते पधारे और वहीं * हमारे संग्रहके प्रबन्धमें जन्मका वार बुधकी जगह शुक और दीक्षा सं० १६५७ मोगसर सुदी १ बीकानेर, लिखा है। घणारसपद सं० १६६८ आसाउलमें लिखा है। . Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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