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________________ ३३४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह - ~ ~ - ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~~ ~ __ लघु आचार्य शाखा ॥ श्री जिनसागर सूरि गीतम् ॥ श्री संघ करइ अरदास हो ,बेकर जोड़ी आपणै भावसुं हो । पूनजी। पूरे मननी आस हो, एकरसउ वंदावउ आविनइ हो ।। पू० ॥ १।। तई जाण्यउ अथिर संसार हो, संयम मारग 'लघुवय' आदर्यो हो ।पू. आगम नउ भण्डार हो, जाण प्रवीण क्रिया नी खप करइ हो ।पू०।२। तुं साधु शिरोमणि देखिहो, पाट तणइ जोगि 'जिनचंद सूरि' कह्योहो। तई राखी जगभई रेख हो, पाट बइसतां उपसम आदर्यो हो ।पू०॥३॥ ए काल तणउ परभाव हो, गुण करतां पिण अवगुण ऊपजइ हो ।पूछ। दूध भजइ विष भाव हो, विषधर मुख खिण मांहि जातां समोहो ।पू०४ नगर 'अहमदाबाद' हो, दोषी माणस दोष दिखाडियो हो । पू० । धरम तणइ परसाद हो, निकलङ्क कनक तणी परि तूं थयो हो ।पू०५। थारउ सबलो जस सोभाग हो, चिहुँ खंड कीरति पसरी चौगुणी हो। तुम्ह उपरि अधिको राग हो, चतुर विचक्षण धरमी माणसां हो ।पू०६॥ जे बेचइ मणिका काच हो, ते सी कीमत जाणे पाचिनी हो । पू। कदाग्रही मिथ्या वाच हो, कुगुरु न छंडइ सुगुरु न आदरइ हो ।पू०१७) तूं शीलवन्त निर्लोभ हो, श्री 'जिनसागर सूरि' सुगुरु तणी हो ।पू० "जयकोरति' करइ सुशोभ हो, अविचल मेरुतणी परिप्रतपज्यो हो ।८। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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