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________________ २०० ऐतिहासिक जन काव्य-संग्रह भव्यानां भव सागर प्रतरणे, पोतायमानो भुवि । श्री मच्छ्री जिनसागरः सुखकरः, सर्वत्र शोभा करः ||५|| सौम्यश्री हिमदीधि तौ सुर गुरौ, बुद्धि र्द्धरायां क्षमा । तेजः श्री स्तरणौ परोपकृति धीः, श्री विक्रमे भूपतो ॥ सिद्धि गौरखनाथ योगिनि बहु, लभश्च लम्बोदरे । ラ संत्येवं विविधाश्रया गुण गणाः सर्वे श्रिता त्वां प्रभो ॥६॥ श्री बोहित्थ कुलांबुधि प्रविलसत्प्रालेय रोचि प्रभा । " भास्वन्मातृ मृगांसु कुक्षि सरसि श्री राजहंसोपमाः ॥ श्री मक्रिम वासि विश्व विदिताः, श्री वस्तराजां गजाः । संतु श्री जिनसागरा, खरतरे, गच्छे चिरंजीविनः ॥७॥ इत्थं काव्य कदम्बकं प्रवरकं, मुक्तापुरः प्राभृतम् । विज्ञप्त समयादिसुन्दर गणिर्भक्त्या विधत्तेभृशम् ॥ युष्मत्प्रौढतम प्रताप तपनो, देदीप्यतां सत्वरः । यूयं पूरयत स्व भक्त यतिनां शीघ्रं मनोवांछितम् ॥ ८ ॥ ( बिकानेर स्टेट लायब्रेरी ) Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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