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________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह कालिकादि सूत्र श्रवण करते हुए आत्माराधना कर सं० १८१२ भाद्र कृष्ण अमावस्याको एक प्रहर रात्रि जानेपर स्वर्गवासी हुए। सभी गच्छके श्रावकोंने मिलकर बड़े उत्सवके साथ आपके पवित्र देहका अग्नि-संस्कार किया, गुरुभक्तिमें बहुत द्रव्य व्यय किया गया। श्रीमद्के कार्य और आत्म-जागृतिको देखकर कवि कहता है कि आपको मोक्ष सन्निकट है। ७-८ भवोंके पश्चात् तो अवश्य ही सिद्धिगतिको प्राप्त करेंगे । आपके स्वर्गगमनके समाचारों से देश विदेशमें शोक छा गया। कविके कथनानुसार आपके मस्तक में मणि थी, वह दहन समय उछल कर पृथ्वीमें समा गई। किसी के हाथ नहीं आई। श्रावक संघने स्तूप बनाकर आपकी पादुओंकी स्थापना की। आपके शिष्य मनरुपजी भी गुरु विरहसे आकुल हो थोड़े ही दिनोंमें आपसे स्वर्गमें जा मिले । अभी (रासरचनाके समयमें) भी रायचन्द्रजी योग्यतानुसार व्याख्यानादि देकर धर्म प्रचार करते हैं। उन्होंने अपने गुरुकी प्रशंसा स्वयं करने से अतिशयोक्ति आदिका सम्भव देख प्रस्तुत रास रचनेके लिये कविसे कहा और कविने सं० १८२५ के आश्विन शुक्ला ८ रविवारको यह 'देवविलास रास', बनाया। आपकी कृतियों श्रीमद् देवचन्द्र भा० १-२ में प्रकाशित है। उनके अतिरिक्तके लिये देखें यु० जिनचन्द्रसूरि पृ० १८६ और ३११। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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