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ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह हिव श्री 'जिनराज सूरिश्वरु', महियल करइ विहार ।
थायइ उच्छव अति घणा, वरत्यउ जय जयकार ॥६॥ 'जेसलमेर' दुरंग गढ़ि, 'सहसफणउ-श्रीपास' ।
थाप्यउ श्री जिनराज गुरु, समर्या पूरइ आस ॥ १०॥ श्री 'विमलाचल' उपग्इ, जे आठमउ उद्धार ।
कीधी तेहनी थापना, जाणइ सहु संसार ।। ११ ॥ परतिख पास 'अमीझरउ' थाप्यउ 'भाणवट' मांहि । इम अवदात किला कहू, मोटउ गुरु गजगाह ॥ १२ ॥ परतिख देवी 'अम्बिका', परतिखि 'बावन बीर' । 'पंचनदी' साधी जिणइ, साध्या 'पांच पीर' ॥ १३ ॥ श्री खरतरगच्छ सेहरउ, महियलि सुजस प्रधान ।
प्रतपइ श्री 'जिनराज' गुरु, दिन २ बधतइ वान ॥ १४ ॥ ढाल इग्यारहमी-आयो आयउरी समरंता दादा आयउ । गायउ गायउरी जिनराजसूरि गुरु गायउ । 'श्री जिनसिंह सूरि' पाटोधर, प्रतपइ तेज सवायउरी ।जि०१आ० पूरब पश्चिम दक्षिण उत्तर, चिहुं दिसी सुजस सुहायउ । रंगी रंगीली छयल छबीली, मोती (य) वेगि बधायउरी ॥२॥जि०।। धन धन 'धर्मसी' शाह नो नंदन, धन 'धारलदे' जायउ । तू साहिब मैं तेरउसेवक, तुझ चल(र?)णे चित्त लायउरी जि०। 'सिंधु' देल विहार करोनइ, 'पांच पोर' वर ल्यायउ। उदय हवइ तिणि देसइ अधिकउ, जिणि दिशि पूज गवायउरी ।४।जि। श्री 'ठाणांग' नी वृति करिनइ, विषमउ अरथ बतायउ । सूरि मंत्रधारी परउपगारी, इंदु नउ बीजउ भायउरी ॥५॥जिन॥
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