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१७४ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह श्रीय 'जिनसिंघ' पाट मिल्येउ साहि सनमुख,
___ 'धरमसी' नंदन सकल जग साखी है। कहै 'कविदास' षट्दरशन उबारै,
शासनकी टेक 'जिणराज सूरि' राखी है ।३। 'आग' तखत आये सबहीके मन भाये,
विविध वधाये संघ सकल उछाह कुं। राजा 'गजसंघ' 'सूरसंघ' 'असरपखान',
'आलम' 'दीवान' सदा सुगुरु सराह कुं। कहै 'कविदास' जिणसिंघ पाट सूर तेज,
अगम सुगम कीने शासन सुठाह कुं । 'मिगसर बहु (वदि?)चोथ' 'रविवार' शुभ दिन,
मिले 'जिनराज' 'शाहिजहां' पतिशाह कुं।४।
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॥ श्री गच्छाधीश जिनराजसूरि गुरु गीतम् ॥ (३)॥ ढाल अलबेल्यानी जाति माहे ॥
--***--- आज सफल सुरतरु फल्यउ रे लाल, आज सफल थयउ दीस । सुखदाइ गच्छ-नायक भेट्यो भलेरे लाल, 'श्रोजिनराज सूरीश' ॥शासु. सोभागी सवि सूरि मई लाल, समता लीन शरीर । सु०। दिनकर नी परि दोपतउ रे लाल, धरणीधर वर (परि?)धीर ।सु।।२।। तूठी जेहनइ 'अंबिका रे लाल, अविचल दोधो वाच । सु० । लिपि बांची 'घंघाणियई' रे लाल, सहुको मानइ साच सु०॥३॥सो०॥
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