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श्रीजिनराज सूरि सवैया (२) श्री जिनराजसूरि सवैया।
'जिनदत्त' (सूर) अर 'कुशल' सूरि मुनिंद
बंछित दायक जाकुं हाजरा हजूर जु । चारित पात (विख्यात) जीते (है) मोह मिथ्यात
और जो अशुभ कर्म किये जिन दूर जु 'जिणसिंघ सूर' पाट सोहै मुनिवर थाट
भणत सुजाण राय विद्या भरपूर जु । नछत्तन (नक्षत्र?) मांझ जैसे राजत निछतपति,
सूरिन मैं राजे ऐसे 'जिनराज सूर' जु ॥१॥ जैसे बीच वारण(?)के गंगके तरंग मानो,
कोट सुखदायक भविक सुख साजकी। गगन अना..."नकी ब्रह्म वेद विचरत ।
सब रस सरस सबल रीझ काजकी। गाजत गंभोर अ (घ?) न धार सुध खीर बंद,
श्रवण सुणत धुन (ध्वनि?) ऐन मेघ गाज की। 'जिनसिंध सूर' पाट विधना सो घड़ी (य) घाट,
__ अमृत प्रवाह वांनी(णी?) सूर 'जिनराज' की ।२। 'साहिजहां' पातिशाह प्रबल प्रताप जाको,
अति ही करूर नूर को न सरदाखी (?)है। 'असी चउ गछ' सब थहराये जाके भय,
ऐसो जोर चकतौ हुवौ न कोउ भाखी है।
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