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________________ जिनरत्नसूरि पट्टधर जिन चन्द्रसूरि गीतानि चतुर नर वंदु श्री ' जिनचन्द्र' जीहो अमृत श्रावणी देस ना, जीहो सांभलता दुख जाय । जीहो ति कारण तूं जाई नइ. जोहो करेज्यो वचन प्रमाण | २|जी० ॥ ܟ २४७ वचन प्रमांण कीधा हुंता जी, घर माहि नवि निधि थाइ । जी० । गुरु प्रणम्यां सुख संपजइ, जीहो कुमति कदाग्रह जाइ । ३ । जी० 'बीकानयर ' जाणीयइ रे, जी० बहु रिधिनउ भंडार | जी० । तिणगाम मांहि दीपतउ जी, 'सहसकरण' सुखकार । ४ । जी० । 'राजलदे' कुखि उपनड जी हो, नामइ 'श्री जिनचन्द्र' । जीहो । वइरागि तिणि व्रत लीय, मनि धरि अधिक आनंद | ५ | जी० । विद्या सुरगुरु सारिखड जी हो, रूपइ वइरकुमार । श्री ' जिनरत्न' पाटइ सही, बहु सुखनउ दातार । ६ । व० । जी० । चिर जीवउ गछ राजीयउ, खरतर गछ नउ इन्द्र । जी० । पण्डित 'करमसी' इम कहइ जी, 'प्रतपड जां रवि चन्द्र | ( ४ ) सुगुरु बधावउ सूहव मोतियां, श्री 'जिणचंद' मुणिन्द । सकल कला करि शोभता, जाण कि पूनम चन्द ॥ १ ॥ सु० ॥ लघु वय संयम जिण लीयड, सूत्र अरथ नउ जाण । पूज पद पायउ जिण परगड़, पूरव पुण्य प्रमाण ॥ २ ॥ ० ॥ 'श्री जिनरत्न सूरि' सइ हथई, श्री संघ तणइ समक्ष । पाइथाप्या हे प्रेम सुं, मति मन्त जाणि नइ मुख्य ॥ ३ ॥ सु० ॥ 'चोपड़ा' वंशइ चिर जयड, 'सहिसू' शाह सुतन । मात 'सुपियारे' जनमिय, सहुको कहइ धन धन्न ॥ ४ ॥ ० ॥ श्री 'जिन कुशल सूरि' सानिधइ प्रतिपउ कोडि वरीस । बघत दावइ गुरु बधो, 'कल्याणहर्ष' द्यइ आशीस ॥ ५ ॥ सु० ॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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