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देव विलास
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दोय कारण छे ए सुपने, देवे जो प्रभावे ए तप(म?)नेरे। कुं० छत्रपति थाये ए पुत्र के, पत्रपति धर्मनुं सूत्ररे। कुंभा२।। जो राज राजेसरी थास्ये, सर्वदेशनो ईश इलास । कुं० जो पत्रपति- पद पामे, तो देश विहार सुठामेरे । कुं०॥३॥ गुरु तब ते जाणो गजराज, तेपरि बेससें शिरताजरे। कुं देवतारूप जन चाकरीये, सिंह बालकने वली पाखरीयेरे । कुं०॥४॥ दान देस्ये ते विद्यादान, बुद्धि अभयदान निदानरे। कुं० जिन ओछव करता इन्द्र, दीर्छ वृन्दारक वृन्दरे । कुं॥५॥ जिनशासननो होस्ये थंभ, विद्यानो होस्ये सर कुंभ। कुं० चैत्य न्युतन पडिमा थापन, तेजस्वीमें तपननो तापनरे । कुं॥६॥ दंपति कहे मुनिराज, सांभलता न धरस्यो लाजरे। कुं क्रोधभाव न आणस्यो चित्त, पुत्र तेजस्विमें आदित्यरे । कुं०॥७॥ तुम रांक तणे घर रत्न, रहेस्ये नही करस्ये यत्नरे। कुं० दंपति मनमांहि चिंते, धार्य छे वोहरावानुं निमित्तरे। कुं०॥८॥ संवत सत्तर (४६)छेताला वरणे, जन्म्यो ते पुत्र छ(छे?) हरषेरे। कं० गुण निष्पन्न ते नाम निधान, 'देवचंद्र' अभिधानरे। कु०॥६॥ वरस थया ते पुत्रने आठ, धारे ते विज्ञानना पाठरे। कुं. कवियण भाखी त्रीजी ढाल, आगल वात रसालरे । कुं०॥१०॥
दहा अनुक्रमे विहार करता थका, आव्या पाठक तत्र,
'राजसागर शिरोमणि', अर्भक प्रसव्यो यत्र ॥ १॥
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