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________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अनुक्रमे विहार करताथका, 'श्री जिनचंद' सूरीश। वि०॥ तेह गामे पधारोया, जेहनी प्रबल जगीस। ।वि० । १८ था। विधिस्यु वांदे दंपति, 'धनबाई' कहे तास । ।वि० । हस्त जूओ स्वामी मुजतणो, आगल सुखनुं धाम(वास?)।वि०। १६था० एक पुत्र विद्यमान छे, अन्य सगर्भा दीठ । ।वि। श्रुतज्ञाने जाणीओ, पुत्र दुजो हशे इष्ट । ।वि० । २० था। ए बीजा पुत्रने अम देज्यो, पण वाचकने दीधु वचन । वि० । बीजी ढालमें कवि कहे, मन मां(न्या) नानु मन्न । वि०। २१था। दूहा:-सोरठा दंपती श्री गुरुपास, करजोडी करे विनती, तुम उपर विश्वास, यथार्थ कहो श्रीस्वामीजी ।। १ ।। सुपनाध्यायना ग्रन्थ, काड्या गुरुए तत्खिणे, सत्य बोले निग्रन्थ, लाभानुलाभ ते जोइने ।। २ ।। श्री गुरु शिर धुणावीयुं, चमत्कृति थइ चित्त , . सामान्य घर ए सुपन स्युं ? पण इहां एहवि थीति ।। ३।। हे देवाणुप्रिय ! सांभलो, सुपन तणो जे अर्थ , शास्त्र अनुसारे हुं कहूं, नवि बोलु अमे व्यर्थ ॥ ४ ॥ देशी–मनमोहनां जिनराया तुम धरणीमे गजपतिदीठो, ते तो शास्त्रे कह्यो गरीठोरे । कंवर थास्ये लाडकडो, हारे सुपनप्रभाव थास्येरे । गज पर बेसीने दान, वलि अनमिष सेवे विधानरे। १ कुं०। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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