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________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार आपकी परम्परादिके विषयमें युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ग्रन्थ (पृ० १७३) देखना चाहिये । . उ० भावप्रमोद (पृ० २५८) 'श्रीजिनराजसूरि (द्वितीय) के शि० भावविजयके शिष्य भावविनयजीके आप सुशिष्य थे । बाल्यावस्थामें ही आपने चारित्रका ग्रहण किया था। श्रीजिनरत्नसूरिजीने आपके विमलमतिकी प्रशंसा की थी और उनके पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरिजी तो आपको (विद्वतादि गुणोंके कारण ) अपने साथ ही रखते थे। आप बड़े प्रभावशाली और उपाध्याय पदसे अलंकृत थे। सं० १७४४ माघ कृष्णा ५ गुरुवारके पिछले प्रहर, अनशन (भवचरिम-पचक्खाण ) द्वारा समाधिपूर्वक आप स्वर्ग सिधारे । ____ आपके शि० भावसागर रचित सप्तपदार्थी वृति (१७३० भा० सु० बेनातट, पत्र ३७ ) कृपाचन्द्र सूरि भं० (बं० नं० ४६ नं० ६११) में उपलब्ध है। चंद्रकीर्ति (पृ० ४२१) सं० १७०७ पोष कृष्ण १ को बिलाड़ेमें आपका अनशन आराधन सह स्वर्गवास हुआ। यह कवित्त आपके शि० सुमतिरंगने रचा है , जो कि अच्छे कवि थे । देखें यु० जिनचंद्रसूरि पृ० २०६, ३१५ . कविवर जिनहर्ष - (पृ० २६१) खरतर गच्छीय शान्तिहर्षजीके शिष्य कविवर जिनहर्ष अट्ठा Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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