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हीरकीर्ति परम्परा हीरकीर्ति परम्परा
॥ कवित्त ॥ 'पदमहेम' गुरु प्रवर, सदा सेवक सुख आपै ।
'दानराज' दिल साच, सेवतां संकट कापै ॥ "निलय सुन्दर' वाचक सुगुरु, साहिब सुखकारी।
___ हर्षराज' गुणवन्त, 'हीरकीरति' हितकारी । पांचे सुगुरु पांच मेरु सम, पंचानुत्तरनी परे।
दीजियै सुख संतान रिद्धि, 'राजलाम' वीनति करे ॥१॥ वाचक प्रवर 'राम जो', बड़ो मुनिवर वखतावर ।
नामै नवनिधि होइ, 'राजहर्ष' गुण आगर ॥ पण्डित चतुर प्रवीण, जुगति जाणन जोरावर ।
____ 'तिलक पद्म 'दानगज,' 'हीरकीरति' पाटोधर ॥ इम ऋद्ध वृद्धि आणंद करौ, सुख सन्तति द्यौ संपदा । 'राजलाम' कहै गुरु जी हुज्यो, सेवक नुं सुप्रसन्न सदा ॥२॥ । संवत् १७५० वर्षे मिती माघ सुदि ५ दिने ।
॥ श्री गुरुभ्यो नमः ॥
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