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२५६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वा० हीरकीर्ति स्वर्गगमन गीतम्
श्री 'होरकोरति' वाचक प्रणमो, सुर मणि सुरतरु सुरधेन समो। अरियण दुख दोहग दूरि गमइ, घरि नवनिधि लिखमो रंग रमइ ॥१॥ सुख संपति दायक उपगारी, सेवक जन नइ सानिध कारी । लबधइ गुरु गोयम गणधारी, नित ध्यान धरू हुं बलिहारी। २। गुरु चरण करण बह्म व्रत पालइ. तप जप करि अशुभ करम टालइ। पूरव मुनिवर मारग चालइ, निज देव सुगुरु मनि संभालइ । ३। श्री 'गोलवछा' वंसइ दीपइ, तेजइ करि दिनकर नइ जोपइ । महियल मंडल महिमा जागइ, सेवक लुलि पाये लागइ । ४ । सिद्धंत अरथ गुण भंडार, छ(व) काय वछल प्रति हितकार। सुमिती अजव मदव सार, मुत्ती संजम तप निरधार । ५ । अणदीधउ न लीयइ साच बदइ, आकिंचन (दश) विध सील हवइ । आहार तणा दूषण टालइ, वइतालीस सुद्धि क्रिया पालइ । ६ । शाखा जगगुरु जिनचन्द तणइ, महिमा जस वास संसार थुणइ। गणि 'दानराज' पाटै उदयो, वाचक वर 'हीरकीरति जयो । ७ ॥ संवत 'सतरइ गुणतोस' समइ, रहिया चौमासउ अंत समय । 'श्रावण सुदि चउदस' जोधाणई' ज्ञानइ करि आऊखो जाणइ । ८ ॥ चोरासी योनि खमावि सहू , लख पाप अठार आलोय बहू। अपनै मुख अणशण आदरीयो, निज चित्तमें ध्यान धरम धरीयो ।४। नवकार महामंत्र संभाली, गति असुभ करम दूरे टाली । अणशण पहुर बि आराधी, सुह झांणइ सुर पदवी लाधी । १० ।
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