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________________ देव विलास २६७ मारि उपद्रव टालीओ रे, अष्टादशे गुणे जेह १८ देश देशे गुण कीर्तिनी रे, प्रवर्त्त विख्यातनुं गेह रे । भ०। सां०। १६॥ एकोनविंशति गुणगणे रे, आजानबाहु देवचंद्र १६ । क्रिया उद्धार वीसमे गुणे रे, अवधि जाणे सुरेन्द्र रे । भ० ।सां० ११७॥ जिम शेषनागने शिरमणि रे, तेहना गुण छे अनन्त । तिम देवचंद्र मणि मंजुरे,(मस्तकेरे)एकवीस गुण महंत भासां०।१८। प्रभाविक पुरुष आगे थयारे, अधुना तेहने तुल्य । ए गुण बावीस स्थूलतारे, सूक्ष्म गुण बहुमूल्य रे । भ० । सां० । १६ । पढम ढाल ए गुणतणी रे, कवियणे भाखी जेह । अल्पभवी हस्ये ते सद्दहेरे, एहवा पुरिस थोडा जगरेहरे ।भ०सां०।२० प्रथल ढाल ए गुणतणी, कवियण भाखी जेह, विपक्षीने जाणवा, मनमें जाणे तेह। ॥ १॥ गुणतो सर्वत्र प्रगट छ, देश विदेश विख्यात , कवियणनी अधिकाइता, स्युं ? एहमे छे वात । ॥२॥ कवियण कहे एक जीभतें, किम गुणवर्णन जाय, सागरमें पाणी घणो, गागरमें (न) समाय ॥३॥ वली कोइ भवि पुछस्ये, कवण ज्ञाति कुण जाति, मातपिता किहां एहनां, ते संभलावो भांति ॥ ४ ॥ देश किहां किहां जन्मभू, कुंण गुरुना ए शिष्य, कुण श्रीपूज्य वारे हुवा, भली उलटे लीधि दीक्ष ।। ५ ।। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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