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सयल संघ सु
श्रोजिनकुशलसूरि पट्टाभिषेक रास 'पुणरविए पुणवि सो साहु, संघ सयलि सम्माणिय ए।
आ गई ए उच्छव सारु, सिरि चन्द कुलि जगि जाणिय ए ॥२६॥ इण परि ए तेडवि संघु, पाट महोछवु कारविउ ।
जिण गरूए नव नव भंगि, सयल बिंव सु समुद्धरिउ ॥३०॥ 'घातः-धवल मंगल धवल मंगल कलयलारवे ।
वज्जत घण तूर वर महुर सहि नचइ पुरंधिय । वसुधारहि वर संति नर केवि मेहु जेम मनहि रंजिय । ठामि ठामि कल्लोल झुणि, महा महोछवु मोय ।
जुगपहाण पयसंठवणि, पूरिय मग्गण लोय ॥ ३१ ॥ सयल संघ सुविहाण, जिण सासण उज्जोय करो।।
__ कोह लोह मय मोह, पाव पंक विधंसियरो ॥ ३२ ॥ उदयाचल जिम भाणु, भविय कमल पडिबोह करो।
तिम जिणचंद सूरि पाटि, उदयउ सिरि जिण कुसल गुरो॥३३॥ जिम उगइ रवि बिंबि बि, हरषुहोइ पंथि अह कुलि ।
जण मण नयणाणंदु, तिम दीठइ गुरु मुह कमलि ॥ ३४ ॥ अणहिलपुर मंझारि, अहिणव गुरु देसण करइ ।
नाण नीरु वरिसंतु, पाव पंकु जिम घणु हरइ ॥ ३५ ॥ ता महि-मंडलि मेरु, गयणंगणि जा रवि तपए ।
सिरि जिणकुशल मुणिंदु, जिण-सासणि ता चिरु जयउ ॥३६॥ नंदउ विहि समुदाउ, तेजपालु सावय पवरो।
साहमिय साधारु, दस दिसि पसरिउ कित्ति भरो ।। ३७ ।। गुणि गोयम गुरु एसु, पढहि सुणहि जे संथुणहि ।
अमराउर तहि वासु, धम्मिय "धम्मकलसु" भणइ ।। ३८ ।।
नोह मय मोह
बोह करो।लगुरो॥३
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