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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह
परमप्पणय न केवि गुरु, निम्मल धम्मह हुंति ।
सव्व तिस पुर मन्नियई, जे जिणवयण मिलति ॥ ६ ॥ गुरु गुरु गाइवि रंजियई, मूढा लोउ अयाणु |
न मुइ जं जिण आण विणु, गुरु होइ सत्तु समाणु ॥ १०॥ जिम सरुणाईय माणुसह, कोइ करइ शिरछेओ ।
न मुणइ जं जिण-भासियओ, तिम कुगुरुह संजोओ ||११|| हुंडा अवसप्पणि भसम गहु, दूसम काल किलिट्ठ ।
जिणवल्लहसूरि भड्डु नमहु, जेण उसुत्तु न सिट्ठउ ॥१२॥ जो जिह कुलगुरु आइयउ, तहि ते भक्ति करंति ।
विरला जोइवि जिणवयणु, जहिं गुण तहिं रच्चति ॥ १३ ॥ हाहा दूसम काल बलु, खल-वक्कत्तण जोइ ।
नामेगइ सुविहिय तणइ, मित्तु वि वयरिओ होइ ॥ १४ ॥ तिहि चेडाहि विहउं नमओ, सुमुणिय परम उछाह ।
हिres जिण विहिक्कु पर, अनुसुद्धउ गुण जाह || १५ || जे जिणवरु पहु होलियइ, जणु रंजियइ हयासुं ।
सो वि सुगुरु पणमंतह, कुट्टिल हियइ हयासु ॥ १६ ॥ मरिय भवे जिओ वीर जिणु, इक्कि उसुत्त वेणु ।
कोडाकोडि सागर भमिओ, किं न सुणहु मोहेण ॥ १७ ॥ तव संजम सुत्तरेण सउ, सव्ववि सहलउ होइ ।
सो वि उसुत्तलवेण सउ, भव- दुह लक्खहं देइ ॥ १८ ॥ माया मोह चएउ जण, दुलहउं जिण विहि-धम्मं ।
जो जिणवल सूरि कहिओ, सिग्घं देइ शिव-संमुं ॥ १६ ॥
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