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श्री साधुकीर्ति सुयश गीतम्
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(३) गहुँली राग-असावरी वाणि रसाल अमृत रस सारिखी, मोठ्या भवियण लोइ जी। ___ सूत्र सिद्धंत अर्थ सूधा कहइ, सुणतां सवि सुख होइ जी ।।१।। सहगुरु साधुकीर्ति नितु वन्दीयइ, उपशम रस भंडारो जी।
शील सुदृढ़ संजम गुण आगला,सयल संघ सुखकारो जी ।स। पंच सुमति त्रण गुप्ति भलो परइ, पालइ निरतीचारो जी।
जे नर-नारी पय सेवा करइ, दुत्तर तरइ संसारो जी ॥२॥स०। वस्तिग नन्दन गुरु चढ़ती कला, ओसवंश सिंगारो जी।
धन खेमल दे जिणि उयरइ धर्या,सचिंती कुलि अवतारो जी ।३स० दरसणि नवनिधि सुख सम्पति मिलइ, दयाकलश गुरु सीसोजी। "देवकमल' मुनि कर जोडी भणइ, पूरवउ मनह जगीसो जी।४।स०.
॥सं० १६२५ वर्षे श्रावणसुदि १० आगरा नगरे जिनचन्दसूरि राज्ये हंसकीर्ति लिखितं श्राविका साहिबी पठनार्थ ॥ पत्र १ श्रीपुजजीके संग्रहमें । ( अनाथी, पार्श्व गीतसह )
(४) कवित्त साधुकीर्ति साधु अगस्ति जिसो, सब सागरको नाद उतार्यो । पतिशाह अकबरके दरबार जीतउ जिणवाद कुमति विदार्यो । पीयउ जिण तिण चरुवार भडार दीयउ लघु नीति विगार्यो । सकुच्यउ अद्ध सागर माजि गयो,
गरब इक हानि भज गच्छ निकार्यो ।
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