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________________ १४० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह marva ककि कनकसोम कृत जइतपद् वेलि सरसति सामणी वीनवु, मुझ दे अमृत वाणि । मूल थको खरतर तणा, करिस्युं विरुद बखाणि ॥१॥ श्रावक आवी मिली सुणो, मनधरि अति आणंद । चित्त विषवाद न को धरउँ, साचउं कहइ मुनिंद ॥२॥ सोलहसय पंचीसइ समई, वाचक दया मुनीस ।। चउमासि आया आगरी, बहु परि करि सुजगीस ॥३॥ 'रतनचन्द" वघराग गणि, पण्डित “साधुकीर्ति'। "हीररंग" गुण आगलो, ज्ञाता 'देवकीरत्ति" ॥४॥ तप करि "हंसकोर्त" भलो, "कनकसोम" जसवंत । ___"पुण्यविमल" मनि ध्यान धरि, "देवकमल" बुधिवंत ।।५।। "ज्ञानकुशल" ज्ञाता चतुर, “यशकुशल" हि जस लिंद्ध । ___ "रंगकुशल" अति रंग करी, "इलानंद" सुप्रसिद्ध ॥६॥ वैरागे चारित्र लीयो, "कीरत्ति(वि)मल" सूजाण । वड़ जिम साखा विस्तरौ, दिन २ चढ़ते बान ।। ७ ।। चालि-नितु दिन २ चडतइ वान, श्री संघ दीयइ बहुमान । तपले चरचा उठाइ, श्रावकने बात सुणाइ ॥८॥ मो सरिखो पंडित जोइ, नही मझि आगरै कोइ । तिणि गर्व इसो मन कीधउं, बुद्धिसागर अपयश लीधो ।।६।। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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