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कवि कनकसोम कृत जइतपद वेलि
श्रावक आगै इम बोलई, अम्ह गाथारस (थ ?) कुण खोलइ । श्रावक कहइ गर्व न कीजइ, पूछी पंडित समझीजइ ||१०|| संघवी सतीदास कु. पूछई, तुम्ह गुरु कोइ इहां छइ !
संघवी गाजी नई भाखई, साधुकीर्त्ति छै इम दाखई ॥ ११ ॥ लिखि कागद तिथि इक दीन्हउं, श्रावक वचने न पतीनउं ।
पोसह तिहि एक प्रकार, भ्रमि भूलउ ते अविचार ||१२|| साधुकीर्त्ति तत्व विचार्यों, तत्वारथ मांहि संभार्यो ।
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पौषध छई दोइ प्रकार, बूझ्यो नहीं सही गमार ॥ १३ ॥ तिहां लिखत दोष दस दीट्ठा, तपला तब थया निकीट्ठा ।
मिली पद्मसुंदर नई आखडं, गच्छ त्र्यासीकी पत राखउं || १४ || दूहा - पदम सुंदर इम बोलियउं, वंदन नायडं कांइ ।
स्वारथ पडीओ आपणई, तरं आयो इण ठांइ ॥ १५ ॥ हिव अपराध खमडं तुम्हें, पडयो बरांसउ एह ।
हिव सरणे तुम आविया, कांइ दिखाडउ छैह ||१६|| तपले ने संतोषोउ, पिणि सांक्यउं मन मांहि ।
साधुकीर्त्ति जिहां आविस्यै, तिहां हुं आविसुं नांहि ॥ १७॥ सुणी बात खरतर खरी संघ मिल्यो सब आई ।
गाल बजाई ऋषिमती, हिव ढीला तुम्ह कांई ||१८|| चालि - ढीला हिव हम्हे न होस्यां, ऋषिमतीयनकी पत खोस्यां । खरतरे तेजसी वोलायो बहु आणंद सुं ते आव्यो ॥ १६ ॥
पंच मिलि बात पतोठी, परगच्छी हुआ वसीट्ठी ।
चउथान कि चरचा थापों, ते घर लिखि अनइ अम्ह आपडं ||२०||
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