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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह
श्रीजिनचन्द्रसूरि सानिधइ, "दया कलश" गुरु सीस रे ।
" साधुकोति” जगि जयत छई, कहइ कवि "जल्ह" जगीस रे | ८|खर० ॥ इति श्री साधुकीरति गुरु जयपताका गीतं ।
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संवत् दस सय असीयइ पाटणइ, ची ( चैत्य ) वासी मलिमाणो जी । खरतर विरुद लहउ दुर्लभ मुखइ, सूरि जिणेसर जाणोरे । १ । जय पाडयउ (पाम्यो ?) खरतर पुरि आगरइ, साधुकीर्त्ति बहु नूरे जी । पोसह पर्व दिनइ जिण थापीयउ, अकबर साहि हजरे रे |२| जय आगरइ पुरि मिगसरि धुरि बारसी, सोलपंचवीस वरीस जी ।
पूरव बिरुद सही उजवालियर, साधुकीर्त्ति सुजगीशो रे | ३|ज० च्यारि वरण खरतर (कुं) जय (जय) करि, जाणइ बाल-गोपालजी ।
बूठा वाट बटाऊ सहु कहर, कुमती सिर पंच तालोजी |४| जय कुबुद्धि षष्ट थयउ तर विण सही, नीलज अनइ
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तस्कर जिम दुइ भेरि बजाविनइ, आव्यउ रयणी ठामजी |५|ज० चामल मेघदास नेतसी, ले अकवर फुरमाणो जी ।
पंच शब्द बजावी जय लहयउ, खरतर कोयउ मंडाणो जी | छान श्री जिनदत्त कुशलसूरि सानिधइ, उत्तम पुण्य प्रकारो जो ।
कर जोडी नइ' खइपति" वीनवइ, खरतर जय-जयकारोजी 19 ज इति श्री जयपताका गीतं ।। श्री । श्रा० भरही पठनार्थ ॥
( पत्र १ श्रीपुजजी सं० )
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